Monday, March 20, 2017

एक दराज़

घर मे एक दराज़ था
सालों बाद जब खोला इस बार
तो कई लम्हे पड़े मिले
कुछ यादों के पन्ने
कुछ सपनों के धागे
कुछ आगाज़ जिन्हें अंजाम ना मिला
कुछ रिश्ते जिन्हें नाम ना मिला
एक तोहफ़ा जिसे भुलाना चाहता था
पर मिटाना नहीं
एक खिलौना जिसे सजाना चाहता था
पर दिखाना नहीं
कुछ रसीदें थीं
जो अपनी उम्र से ज्यादा जी गयी थीं
 एक कलम जिसकी स्याही
काग़ज़ की टुकड़ियां पी गयी थीं
कुछ पुर्जे ऐसी चीजों के
जिनकी न अब याद बाकी थी
न बुनियाद बाकी
अपनी किस्मत से अन्जान
बस ढेरों में तादाद बाकी
दो सिक्के आज भी थे
किसी गुल्लक की पनाह की राह में
एक चाभी थी गुमसुम सी
ताले से मिलने की चाह में
एक डायरी जिसे अधूरेपन का मलाल था
एक घड़ी जिसे आज भी वक़्त का ख्याल था
धागे में लगी सूई जिसने
कपड़ों की उमर बढ़ाई थी
एक पुरानी कैसेट जिसने
करवटें धुनों पर बिताई थी
कुछ बचपन के ताल्लुक
कुछ लड़कपन के मिजाज़
समेटे बैठा था खुद में
वो लकड़ी का दराज़

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